188 साल की हिंदी पत्रकारिता का सच

188 साल की हिंदी पत्रकारिता का सच

प्रमोद जोशी
प्रस्तुति-अखौरी प्रमोद
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।
वैचारिक भूमिका का क्षरण
चिंता का विषय यह है कि वैचारिक क्षितिज पर पत्रकार की भूमिका खत्म हो रही है। 1983 में राजेन्द्र माथुर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में हिंदी के दैनिक अखबारों की पत्रकारिता पर तीन लेखों की सीरीज़ में इस बात पर ज़ोर दिया था कि हिंदी के पत्रकार को हिंदी के शिखर राजनेता की संगत उस तरह नहीं मिली थी जिस तरह की वैचारिक संगत बंगाल के या दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों- पत्रकारों को मिली थी। आज़ादी से पहले या उसके बाद प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी या राहुल बारपुते को नेहरू की संगत नहीं मिली। अलबत्ता आज़ादी के बाद हिंदी अखबारों का विकास प्रादेशिक सरकारों और प्रादेशिक राजनेताओं के गठजोड़ से ही सम्भव हो पाया। माथुर जी ने राहुल बारपुते के बारे में ‘हंस’ में प्रकाशित अपने लेख में मध्य प्रदेश में लाभचंद छजलानी के असर के बारे में भी लिखा। राजस्थान में कर्पूर चंद कुलिश, उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोहन और डोरी लाल अग्रवाल या पंजाब में लाला जगत नारायण का प्रभाव ऐसा ही था। बावजूद इसके हिंदी का कोई अखबार केन्द्रीय सरकार के नेताओं पर असर डालने लायक नहीं है। कुछ साल पहले ‘मेल टुडे’ के तत्कालीन संपादक भारत भूषण ने एक मुलाकात में कहा कि हिंदी अखबार बहुत ‘पावरफुल’ हैं। यह पावर उन्हें कारोबार और राजनीतिक सम्पर्कों के संदर्भ में प्रभावशाली बनाती है। वैचारिक सतह पर नहीं।
अपने इलाकों में हिंदी के अखबार बेहद ताकतवर हैं। सरकारों, राजनेताओं और जनता तीनों के बीच। पर केवल प्रादेशिक मामलों में। राष्ट्रीय क्षितिज पर अंग्रेजी के कुछ पत्रकारों का असर है, पर वैचारिक से ज्यादा जनसम्पर्कीय है। देश के प्रधानमंत्रियों में अटल बिहारी वाजपेयी और एक हद तक वीपी सिंह का हिंदी पत्रकारों से सीधा संवाद था। चौधरी चरण सिंह और चन्द्रशेखर को ज्यादा समय नहीं मिला। कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों में नेहरू जी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहन सिंह के मुकाबले नरसिंह राव हिंदी के वैचारिक क्षितिज के ज्यादा करीब थे।
पत्रकार नहीं, प्रचारक
जनवरी 2011 मे सुनन्दा के दत्ता-राय ने कोलकाता के ‘टेलिग्राफ’ में एक लेख में चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति हू जुन ताओ की अमेरिका यात्रा का संदर्भ था। साथ ही उन्हीं दिनों चीनी प्रधानमंत्री जियाओबाओ की भारत यात्रा का हवाला था। जियाओबाओ ने भारत आकर भारतीय मीडिया पर सनसनीखेज होने का आरोप लगाया था। इसके विपरीत अमेरिका में चीनी राष्ट्रपति अमेरिकी मीडिया से दबे रहे। यानी अमेरिका में आज भी पत्रकार का असर कम नहीं है। न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और वॉलस्ट्रीट जर्नल के कॉलम और अग्रलेख अपना असर रखते हैं। वैसा असर हमारे मीडिया का नहीं है। है भी तो चैनलों के कुछ चेहरों का। वैचारिक नहीं,केवल प्रचारात्मक।
हिंदी पाठकों की दृष्टि, पत्रकारिता और उसकी सामग्री पर शोध करने वाली संस्थाएं नहीं हैं। अखबारों की रिसर्च विज्ञापन केंद्रित होती है। उसमें अखबार की साख, उसके सामाजिक दृष्टिकोण और संस्कृति से जुड़े सवाल होते ही नहीं। वे एक कृत्रिम संस्कृति की रचना करने को उत्सुक नज़र आते हैं। एक वजह यह भी है कि हिंदी का पाठक उतना ताकतवर नहीं है, जितना दिखाया जा रहा है। हिंदी पढ़ने और बोलने वालों की संख्या भारत में सबसे ज्यादा है, पर आज भी देश में सबसे ज्यादा मुद्रित प्रतियों वाला अखबार हिंदी में नहीं है। हिंदी के अखबारों से ज्यादा मुद्रित प्रतियां मलयालम, बांग्ला, तमिल और अंग्रेजी अखबारों की हैं। भले ही हिंदी के अखबार पाठक संख्या में सबसे आगे हों। सच यह है कि देश की मीडिया प्लानिंग अंग्रेजी-मुखी है।
गुणवत्ता का दुश्मन कारोबार?
हिंदी का पाठक वास्तव में अच्छा अखबार क्यों नहीं चाहेगा? वह अंग्रेजी से महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी खरीदता हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। हिंदी में 48 से 78 पेज का अखबार, जिसमें सारी दुनिया की कवरेज हो, एक रुपए में निकल सके तो अंग्रेजी के अखबारों का सिंहासन भी डोल जाए। पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।
कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। मार्केटिंग-महारथी अंग्रेज़ीदां भी हैं। वे अंग्रेज़ी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। इस वजह से अंग्रेज़ी के अखबार सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। यह एक वात्याचक्र है। अंग्रेजी का कारोबार समस्त भारतीय भाषाओं के कारोबार के दुगने से भी ज्यादा है। हिंदी के अखबार दुबले इसलिए नहीं हैं कि बाज़ार नहीं चाहता। ये महारथी एक मौके पर बाज़ार का बाजा बजाते हैं और दूसरे मौके पर मोनोपली यानी इज़ारेदारी बनाए रखने वाली हरकतें भी करते हैं। पर पाठक या ग्राहक की यह जरूरत नहीं है। विडंबना है कि यहाँ कस्टमर किंग नहीं है। या फिर यहां पाठक नहीं विज्ञापनदाता कस्टमर है।
पत्रकारिता कुप्रशिक्षण
हिंदी के पास बेहतरीन प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी है। पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी है। यह बेहतरीन करिअर भी नहीं है। बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ते हैं। अखबारों का तेज विस्तार हो रहा है। उन्हें जो लोग मिल रहे हैं उनसे ही काम चलाते हैं। थोड़े से पत्रकारिता संस्थानों को छोड़ दें तो बड़ी संख्या में ऐसी संस्थाएं हैं जिनकी दिलचस्पी पैसा कमाने भर में है। रोजगार की तलाश में भारी भीड़ आ रही है, पर वह सुप्रशिक्षित नहीं है। इसमें दोष इन नौजवानों का नहीं है। वे ठगे जाते हैं। खबर की खुशबू पहचानने वाले पत्रकारों की जरूरत है, खासतौर से इस दौर में जब सूचनाओं की बमबारी हो रही है। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी, जिसके सहारे लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट हो रहा है। पर मोती चुनने के लिए हंस चाहिए। सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय और पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है।
पूंजी और पवित्रता?
अखबार कारोबार है। उसे निकालने में पैसा लगता है। तीन साल पहले रांची के दैनिक ‘प्रभात खबर’ के स्थापना समारोह में मुझे जाने का मौका मिला। अखबार के संपादक हरिवंश ने अपने अखबार में उस अंतर्विरोध का जिक्र इस प्रकार किया, ‘एक 20 पेज के सभी रंगीन पेजों के अखबार की लागत कीमत 15 रुपए है। हॉकरों-एजेंटों का कमीशन अलग। पाठकों को ऊपर से पुरस्कार चाहिए।...इस पर समाज की मांग कि सात्विक अखबार निकले, पवित्र पत्रकारिता हो। अखबार उपभोक्तावादी समाज, गिफ्ट के लोभी और मुफ्त अखबार चाहनेवाले पाठकों के लिए लड़े? अखबारों की इकोनॉमी, विज्ञापनदाताओं के कब्जे में रहे, पर अखबार समाज के लिए लड़े, यह कामना?... साधन यानी पूंजी पवित्रता से आएगी, बिना दबाव बनाए या बड़े सूद या बड़ा रिटर्न (सूद) की अपेक्षा के, तब शायद साधन यानी पत्रकारिता भी पवित्र होगी। साधन और साध्य के सवाल को अनदेखा कर सही पत्रकारिता संभव है?’
जब तक वैश्विक पूँजी की व्यवस्था है और पत्रकारिता का निर्वहन इन्हीं सांसारिक नियमों के अंतर्गत होना है तब तक हमें इसी सीमा रेखा के भीतर सोचना होगा। फिर भी पत्रकारिता को उसकी धुरी से जोड़े रखा जा सकता है।
गुणात्मक रूप से आला दर्जे की पत्रकारिता का न तो पूँजीवादी व्यवस्था से टकराव है और न मार्केट से कोई रंजिश है। जब तक हमें पाठक पर भरोसा है और हम उससे संवाद की स्थिति में हैं, घबराने की ज़रूरत नहीं है। परेशानी यह है कि हम पाठक का साथ छोड़कर प्रचारकों के साथ जा रहे हैं। ये प्रचारक राजनैतिक हैं और बाजारू भी। जिन रेफ्रीजरेटरों, टेलिविजनों, मोबाइल फोनों वगैरह की गुणवत्ता पर, उनकी सर्विसिंग आदि पर हमें सवाल खड़े करने चाहिए, वे हमें एडवर्टोरियल लिखने को मजबूर कर रहे हैं। यानी यह बाजार की व्यवस्था नहीं है। पेड न्यूज़ दूसरे किस्म का एडवर्टोरियल है। हमारा काम था इनके झूठ का पर्दाफाश करना। पर हम तो झूठ को चॉकलेट टॉपिंग्स के साथ परस रहे हैं।
फिर भी मौका है
हमने अन्ना हजारे के आंदोलन से लेकर हाल के चुनाव तक देखा। मीडिया ने वहां अपॉरच्युनिटी देखी। और उसे पाठक ने हाथों-हाथ लिया। भले ही इसमें संतुलन नहीं था। स्वार्थी ताकतें भी शामिल थीं। यह अपॉरच्युनिटी जनता की तमाम खबरों में है। इसमें थोड़ा श्रम लगता है और कौशल की ज़रूरत है। सामान्य पत्रकारिता को भी कुछ अभिनव आविष्कारों की ज़रूरत है। अभिनव आविष्कार का एक छोटा सा कोना साधन-बगैर हासिल होता है। वह है पत्रकार की मूल्यबद्धता। व्यक्तिगत ईमानदारी के लिए नैतिक पूंजी चाहिए। वह हिंदी पत्रकार के पास है। पर नैतिक रूप से धनी होने के लिए व्यक्ति को आर्थिक रूप से एक हद तक तो स्वतंत्र होना चाहिए। इसकी कमी है तो उसका दोष पत्रकार को नहीं देना चाहिए, क्योंकि अखबार के कारोबार को मुनाफे में तब्दील करने वालों के लिए यह कोई सवाल नहीं है। क्रेडिबल होने के लिए भी पूँजी चाहिए। इस अर्थ में हिंदी मीडिया के पास क्वालिटी कैपिटल नहीं है। कैपिटल में भी फर्क होता है। इंग्लैंड में ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ के बन्द होने के बाद अखबारों के कारोबारी पहलू पर और बारीकी से बात होने लगी है।
मेरे विचार से पत्रकारों को बिजनेस की शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें बैलेंस-शीट पढ़ना आना चाहिए। इसके विपरीत मैनेजरों को क्रेडिबिलिटी और पत्रकारिता की नैतिक मर्यादाओं की जानकारी भी दी जानी चाहिए। यह क्रेडिबिलिटी विज्ञापन विभाग को स्पेस सेलिंग में मदद कर सकती है। बिजनेस का उद्देश्य डिसक्रेडिटेड सामग्री परोसना नहीं है। पूंजी, राजव्यवस्था और नियामक व्यवस्थाओं की कमी दोष पैदा करती है। आर्थिक प्रश्नों की उपेक्षा करके और घाटा सहते हुए प्रभावशाली पत्रकारिता तभी सम्भव है, जब कहीं से पूंजी की अजस्र धारा बहती हो। ऐसी धारा तभी बहती है, जब कोई प्रचार के लिए अखबार निकालता हो। व्यापार के लिए नहीं। सरकार बड़ी विज्ञापनदाता है। पर विज्ञापन देने वाले मुख्यमंत्री मीडिया-कॉन्शस हैं। समाज की माँग है कि अखबार सात्विक निकले। उसे निकालने के लिए कीमत समाज को देनी चाहिए। मसलन बिना विज्ञापन का 16 पेज का अखबार 16 रुपए में। क्या हमारा पाठक इसके लिए तैयार है?
रोचक, सरल और सारगर्भित
पिछले दसेक साल में हिंदी अखबारों ने कवरेज को रोचक बनाया है। उनके पन्ने रंगीन हो गए हैं, डिजाइनर बढ़े हैं, इंफोग्राफ्स का इस्तेमाल बढ़ा है, फोटोग्राफ्स की संख्या बढ़ी है। टेक्स्ट कम हुआ है। इसका फायदा भी मिला है और नुकसान भी हुआ है। फायदा देखने का है। डिज़ाइन का मूल उद्देश्य विज़ुअल्स को आकर्षक बनाने से ज्यादा विषय को समझ में आने लायक बनाना था। किसी बात को टेक्स्ट में लिखने के बजाय इंफोग्राफ के रूप में पेश करने से उसे समझना भी आसान हो जाता है और भाषा के भारी बोझिल नैरेशन से बचा भी जा सकता है। ऐसा हुआ या नहीं इसे देखे बगैर उत्साह में हमने नेट से उठाकर निरर्थक विजुअल्स को लगाना शुरू कर दिया। खबर का एलीमेंट घटता गया। अक्सर वैल्यू एडिशन ने मुख्य खबर की जगह ले ली। यह अव्यावसायिकता, अधकचरी ट्रेनिंग और दृष्टिहीन पत्रकारिता है।
पत्रकारिता में इनोवेशन और आविष्कार की ज़रूरत है। सामाजिक सरोकारों को ठीक तरीके से रिसर्च करके और अच्छे ढंग से इलस्ट्रेशंस के साथ पेश किया जाए तो वे प्रासंगिक हैं। जिन वैश्विक संदर्भों और विषयों की हमें ज़रूरत है उन्हें लाना ही चाहिए। मेरे विचार से अंतरराष्ट्रीय राजनीति को पूरे विस्तार के साथ हमें कवर करना चाहिए, क्योंकि हमारा देश वैश्विक धाराओं के साथ तेजी से जुड़ रहा है। पर इस मामले में भी हिंदी के अखबार फैशन शो, रैम्प में चलती लड़कियां और किसी दूसरे तरीके के ग्लैमरस चित्रों को छापना पसंद करते हैं। अभी सवाल भाषा, लिखने की शैली और संदर्भ सामग्री से जुड़े हैं। सम्पादकीय पेजों की घटती महत्ता का भी।

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